पररवर्तन : साहित्य संस्कृहर् एवं...

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(i) ISSN 2455-5169 पररवतन : साहिय, संकृह एवं हसनेमा की वैचाररकी वत 2 अंक 7 जुलाई हसबर 201 7 www.parivartanpatrika.in

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    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

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    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

    ‘पररवततन : साहहत्य, संसृ्कहत एवं हसनेमा की वैचाररकी’ हवमर्त कें हित सहकमी-समीक्षा आधाररत

    (Peer-reviewed) तै्रमाहसक ई-पहत्रका है। पहत्रका का उदे्दश्य साहहत्य, संसृ्कहत और हसनेमा के के्षत्र

    में हवमर्त व र्ोध को प्रोत्साहहत करना है। कला जगत की हवधागत हवहवधताओ ंको ध्यान में रखते रॅए

    पहत्रका में कई वैचाररक सं्तभो ं का प्रावधान हकया गया है जो इस प्रकार हैं- साहहत्य और संसृ्कहत

    (आलेख), मीहडया और हसनेमा (आलेख), समकालीन हवमर्त (दहलत हवमर्त, आहदवासी हवमर्त, स्त्री

    हवमर्त इत्याहद), र्ोध पत्र, कहवता, कहानी, लोक साहहत्य, रंगमंच, प्रवासी साहहत्य, पुस्तक समीक्षा,

    साक्षात्कार, अनुवाद इत्याहद।

    कला जगत के प्रमुख हस्ताक्षरो,ं सृजनकहमतयो ं और पाठको ं का पररवततन पहत्रका में स्वागत है। हम

    उम्मीद करते हैं हक आप सभी अपने साथतक लेखन और महत्वपूणत सुझाव के ऽररये पहत्रका को एक

    सर्क्त वैचाररक मंच के रूप में स्थाहपत करने हेतु सहायता करें गे। यह पहत्रका जनवरी, अपै्रल, जुलाई

    और अकू्टबर महीने में हनयहमत रूप से प्रकाहर्त की जाएगी।

    पत्राचार

    महेर् हसंह

    कमरा न. 143 सी. वी. रमन हॉस्टल,

    पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय

    पुद्दुचेरी – 605014

    [email protected]

    [email protected]

    www.parivartanpatrika.in

    Mob. # +91 7598643258

    स्थायी पता

    महेर् हसंह, ग्राम, भलुआ; पोस्ट, परहसया;

    हऽला, देवररया; उत्तर प्रदेर् – 274 501

    उद्घोषणा

    पहत्रका के सभी पद अवैतहनक हैं। पहत्रका में

    प्रकाहर्त रचनाओ ं में व्यक्त हवचार रचनाकार

    के अपने हैं, हजससे संपादक की सहमहत

    अहनवायत नही ं है। रचना की मौहलकता से

    समं्बहधत हकसी भी हववाद के हलए रचनाकार

    स्वयं उत्तरदायी होगा। रचना चयन का अंहतम

    अहधकार संपादक के पास सुरहक्षत है। पहत्रका

    से समं्बहधत हकसी भी हववाद का न्याहयक के्षत्र

    चेन्नई (Chennai) होगा।

    © Parivartanpatrika 2016-17

    All Right Reserved

    पररचय

    mailto:[email protected]:[email protected]

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    सम्पादकीय टीम

    सम्पादक

    महेर् हसंह, हहंदी हवभाग, पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    सह सम्पादक

    संतोष कुमार (र्ोधाथी) गुरु घासीदास हवश्वहवद्यालय, हबलासपुर, छतीसगि

    अखखलेर् गुप्ता (र्ोधाथी), हहंदी हवभाग, डॉ हरीहसंह गौर हवश्वहवद्यालय सागर, मध्य प्रदेर्

    उप सम्पादक

    रामधन मीणा (र्ोधाथी), हहंदी हवभाग, पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    अनूप कुमार (र्ोधाथी), इलेक्टर ॉहनक मीहडया एवं जन संचार हवभाग, पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    परामर्श मंडल

    श्याम कश्यप (वररष्ठ पत्रकार)

    प्रोफेसर वीरेन्द्र मोहन (हहंदी हवभाग पूवत अहधष्ठाता), भाषा अध्ययनर्ाला डॉ हरीहसंह गौर हवश्वहवद्यालय,

    सागर, म.प्र

    वैभव हसंह (युवा आलोचक), हदल्ली हवश्वहवद्यालय, हदल्ली

    डॉ प्रमोद मीणा, एसोहर्एट प्रोीेसर, हहंदी हवभाग, महात्मा गााँधी कें िीय हवश्वहवद्यालय मोहतहारी, हबहार

    पुनीत हबसाररया, एसोहर्एट प्राध्यापक, बंुदेलखंड हवश्वहवद्यालय, झााँसी, उ.प्र.

    प्रो. चंदा बैन, हवभागाध्यक्षा, हहन्दी एवं भाषा हवज्ञान हवभाग, डॉ हरीहसंह गौर हवश्वहवद्यालय, सागर, म.प्र.

    डॉ हसद्धाथत रं्कर राय (सहायक प्राध्यापक), हहंदी हवभाग, हररयाणा कें िीय हवश्वहवद्यालय, हररयाणा

    डॉ अहमत हसंह परमार (सहायक प्राध्यापक), मंुगेली, छत्तीसगि

    श्री मुरली मनोहर हसंह (सहायक प्राध्यापक), हहंदी हवभाग, गुरु घासीदास हवश्वहवद्यालय हबलासपुर छ.ग.

    डॉ रमेर् गोहे (सहायक प्राध्यापक), हहंदी हवभाग, गुरु घासीदास हवश्वहवद्यालय हबलासपुर छ.ग.

    उद्भव हमश्र (साहहत्यकार), देवररया उ.प्र.

    डॉ राजेर् हमश्र (अहतहथ सहायक प्राध्यापक), हहंदी हवभाग, गुरु घासीदास हवश्वहवद्यालय हबलासपुर छ.ग.

    हदलीप खान (पत्रकार), राज्य सभा टेलीहवऽन, हदल्ली

    धीरेन्द्र राय (सहायक प्राध्यापक), पत्रकाररता एवं जनसंचार हवभाग, कार्ी हहन्दू हवश्वहवद्यालय, वाराणसी

    जयराम कुमार, सहायक प्राध्यापक, पासवान हत्रवेणी देवी भालोहटया कॉलेज, रानीगंज, वधतमान, प.ब.

    सम्पादक मंडल

    हवरेांत कुमार, स्वतंत्र लेखन, वेगुसराय, हबहार

    राकेर् कुमार उपाध्याय, हहंदी टीजीटी अध्यापक, चंडीगि

    धीरज कुमार, अहथहत प्राध्यापक, माखनलाल चतुवेदी राष्ट्र ीय पत्रकाररता एवं जनसंचार हवश्वहवद्यालय,

    भोपाल, मध्य प्रदेर्

    हटकेश्वर प्रसाद जंघेल (र्ोधाथी), इंहदरा कला संगीत हवश्वहवद्यालय, खैरागि, छतीसगि

    लहलत कुमार (र्ोधाथी), पत्रकाररता एवं जनसंचार हवभाग, र्ाखिहनकेतन, कोलकाता, पहिम बंगाल

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    संजय प्रताप हसंह (र्ोधाथी), पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    जगदीर् नारायण हतवारी (र्ोधाथी), हहंदी हवभाग, पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    भारती कोरी (र्ोधाथी), हहंदी हवभाग, डॉ. हरीहसंह गौर हवश् वहवद्यालय, सागर म.प्र.

    मनीष कुमार (र्ोधाथी), नाट्य कला हवभाग, पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    नीरज उपाध्याय (र्ोधाथी), नाट्य कला हवभाग, पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    हप्रयंका र्मात (र्ोधाथी), नाट्य कला हवभाग, पांहडचेरी हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    हररनाथ कुमार (र्ोधाथी), बी. आर. अमे्बडकर हवश्वहवद्यालय, लखनऊ, उत्तर प्रदेर्

    हवनीत गुप्ता (र्ोधाथी), बनारस हहन्दू हवश्वहवद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेर्

    ऋहष गुप्ता (र्ोधाथी), दहक्षण एहर्या अध्ययन कें ि, जे.एन.यू., नई हदल्ली

    अनुराग वमात, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर हवश्वहवद्यालय (कें िीय हवश्वहवद्यालय), लखनऊ

    पंकज र्मात, र्ोधाथी, हहंदी हवभाग, जाहमया हमहलया इस्लाहमया, नई हदल्ली

    रहव हसंह, र्ोधाथी, पत्रकाररता एवं जनसंचार हवभाग, बीबीएयू, लखनऊ

    प्रहतमा, र्ोधाथी, पत्रकाररता एवं जनसंचार हवभाग, बीबीएयू, लखनऊ

    हहतेर् सवाई (हवद्याथी), इंहदरा कला संगीत हवश्वहवद्यालय, खैरागि, छतीसगि

    आवरण एवं कला सम्पादक

    डेहवड हदनाकरन एवं अनूप कुमार, इलेक्टर ॉहनक मीहडया एवं जन संचार हवभाग, पांहडचेरी

    हवश्वहवद्यालय, पुदुचेरी

    तकनीकी टीम

    नवीन भारती (र्ोधाथी) कंपू्यटर साइंस & इंजीहनयररंग कंपू्यटर साइंस हवभाग, पांहडचेरी यूहनवहसतटी,

    पांहडचेरी

    अंरु्मन नाट्यकला हवभाग, पांहडचेरी यूहनवहसतटी, पांहडचेरी

    ववरे्ष सहयोग

    राजेर् कुमार , अहभषेक कुमार हसंह , चंिकांत हत्रपाठी, श्री प्रकार् पाणे्डय

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    अनुक्रमवणका

    संपादकीय

    महेर् हसंह 1-3

    सावहत्य एवं संसृ्कवत

    सावन का हबग बाजार

    देवेन्द्र आयत 4-7

    भाषा-हर्क्षण और सांसृ्कहतक अखिता की उपादेयता

    डॉ. रामचन्द्र पाणे्डय 8-10

    सूचना, संचार प्रौद्योहगकी और हहन्दी भाषा

    मनोज कुमार एवं भारती कोरी 11-14

    पे्रमचंद-साहहत् य में मानवेत् तर चेतना

    डॉ. मीनाक्षी जयप्रकार् हसंह 15-19

    परंम्पराओ ंमें पररवततन की प्रहकया

    डॉ. राजेंि जोर्ी 20-23

    सूरजमुखी अाँधेरे के’ उपन्यास का समाज मनोवैज्ञाहनक अध्ययन भावना मासीवाल 24-28

    समकालीनता के हनधातरक आधार और समकालीन कहवता डॉ. धीरेन्द्र हसंह 29-33

    हत्रलोचन के काव्य में धाहमतक हचिन का स्वरूप

    डॉ. सुभाष चन्द्र पाणे्डय 34-36

    पे्रम का संदभत और ‘कसप’

    हर्खा 37-40

    समथत रामदास (मराठी) कृत ‘रामावतार’ तथा गुरु गोहबंद

    हसंह (पंजाबी) कृत ‘रामायण’ का तुलनात्मक अध्ययन

    डॉ. भूहपंदर कौर 41-44

    समकालीन हहंदी उपन्यासो ंमें स्त्री-आरेोर् और मानवीय मूल्य

    डॉ. से्नहलता 45-48

    मैते्रयी पुष्पा : स्त्री आपबीती और सामाहजक सरोकार

    मनोज कुमार रजक 49-51

    कववतायें

    पे्रम कुमार की कहवतायेाँ

    52-53

    पूजा कुमारी की कहवतायेाँ

    54-55

    र्र्ांक पांडेय की कहवतायेाँ

    56-57

    लव कुमार लव की कहवतायेाँ

    58-60

    बृजमोहन स्वामी ‘बैरागी’ की कहवतायेाँ

    61-62

    बृज राज हकर्ोर 'राहगीर' की कहवतायेाँ

    63-64

    अहमताभ हवरेम हिवेदी की कहवतायेाँ

    65-66

    सुहप्रया हसन्हा की कहवतायेाँ

    67-68

    पारुल र्मात की कहवतायेाँ 69-70

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    डॉ. कहवता पहनया की कहवतायेाँ

    71-72

    एस. आनंद की कहवतायेाँ

    73-74

    कुमुद श्रीवास्तवा की कहवतायेाँ

    75-76

    अहभलाष गुप्ता की कहवतायेाँ

    77-78

    डॉ.राकेर् जोर्ी की गजलें

    79-80

    डॉ. कहवता कुमारी की गजलें

    81-81

    एच.पी. गुप्ता की कहवतायेाँ

    82-83

    कहानी

    पागलपन

    गोपाल हनदोष 84-88

    और सांसें टूट गयी ं

    अजय कुमार चौधरी 89-93

    तुमसे

    र्हादत 94-98

    सू्कल में नाटक चन्द्रहास

    गोवद्धतन पटैररया 99-101

    ऐहतहाहसक बरगद

    राम हनवास राम 102-104

    लघु कथा

    मूहततकार का तप पारुल र्मात 7-7

    बबुआ हपयूष रंजन श्रीवास्तव 14-14

    वसनेमा

    वैहश्वक पररदृश्य में कला हफल्ो ंके आंदोलन का भारत में प्रभाव

    भगवत प्रसाद पटेल 105-109

    भारतीय समाज में हहंदी हसनेमा का प्रभाव आनंद दास 110-112

    हील् समीक्षा- हाफ गलतफ्रें ड

    तेजस पुहनया 113-114

    पुस्तक-समीक्षा

    दहलत ददत का दस्तावेज : चमार की चाय दीपा 115-120

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    महेर् वसंह

    संपादक

    ‚आप भी न कमाल करते हैं महराज... जब देखखये तब आमजन को उकसाते रहते है. काहें करते है ई सब...? आपको पता भी है

    हक आज के समय में सत्य बोलना और अपने अहधकारो ंकी मांग

    करना हकतना खतरनाक है। इसके हलए आपके उपर देर्िोह का

    मुकदमा भी ठोका जा सकता है... वैसे मुकदमा-उकदमा तो हफर

    भी ठीक है। इसमें कोटत-कचहरी में बार-बार पेर्ी होगी और

    ज्यादा से ज्यादा जेल हो सकती है, लेहकन इस दौरान यहद आप

    सरकार बहादुर के कवनो गैंग के हते्थ चि गए तो समहझये

    आपका फैसला ऑन द स्पॉट तय है... वे सजा सुनाते नही ंसजा देते

    है... जानकारी के हलए बता दे हक हबना कुछ कहे सुने उ सब आप

    जैसे लोगो ं का कंूच-कंूच के कचूमर हनकालते हैं... दावा तो नही ं

    करते हम, लेहकन कही ंन कही ं वे सरकार से इस काम के हलए

    लाइसेंस जरुर हलए होगें, क्ोहंक हबना लाइसेंस के आज के जमाने

    में कुछ भी करना असम्भव है... इसीहलए हम आप से कहते है हक

    अपने इस चेले की बात पर गौर फरमाइए और भगवान का भजन

    करते रॅए अपने ज्ञान को यथाथत के मोह से हनकालकर आदर्त का

    आवरण चिाते रॅए सुबह-दोपहर-र्ाम पौहष्ट्क भोग लगाकर

    अध्यात्म के हलए ध्यान लगाते रहहये, क्ोहंक यह दम साधकर सांस

    लेने और सांस छोाने का समय है महराज..!‛- गांव के बाहर खस्थत

    कुहटया में हचंहतत बैठे महराज को उनका चेला अपने व्यवहाररक

    ज्ञान के आधार पर समझाते रॅए कह रहा था.

    यह इते्तफाक ही माना जाय हक मैं भी वही ंमौजूद था, जहााँ

    इन गुरु-चेले की बतकही चल रही थी। मैं उस समय छुट्टी हबताने

    गााँव गया रॅआ था। हालांहक उनके बीच और भी बरॅत सारी बातें

    रॅयी। लेहकन गुरु-चेले की वातातलाप का यह सारांर् मेरे मानस

    पटल पर अनायास ही छपता चला गया। इसहलए तब से इस हवषय

    पर मेरा माथा चक्करहघन्नी की तरह लगातार घूम रहा है और बार-

    बार यह प्रश्न मुझे परेर्ान कर रहा है हक क्ा वास्तव में ‘यह दम

    साधकर सााँस लेने और सााँस छोाने का समय है ?’

    आजादी के बाद देर् में र्ासन की लोकताखिक प्रणाली

    लागू रॅई थी। हजसके हलए बाकायदा एक संहवधान भी हलखा गया,

    हजसको देर् की जनता ने स्वतः आत्माहपतत हकया था। तब से लेकर

    आज तक सबकुछ संहवधान के अनुसार ही चल रहा है, ऐसा

    प्रते्यक सरकार िारा जनता से कहा जाता है। लेहकन आजादी के

    सत्तर सालो ंका सही ढंग से अवलोकन करने पर तस्वीर एकदम

    साी नजर आती है और लगता है हक संहवधान को हमने

    आत्माहपतत तो कर हलया लेहकन अभी तक हम आत्मानुर्ाहसत नही ं

    हो पाए। इसके कई कारण हैं। हजसे यहााँ हगनाने का मेरा कोई

    यह दम साधकर सााँस लेने और सााँस छोड़ने का समय है महराज !

    संपादकीय

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    इरादा नही ंहै। लेहकन एक दावा जरुर करना चारॆाँगा

    हक देर् का र्ायद ही कोई ऐसा व्यखक्त होगा जो

    अपने पूरे जीवन काल में लोकतंत्र का बार-बार

    मजाक न उााया हो। अनजाने में हो गई गलती,

    हचंता का हवषय नही ं है हचंता का हवषय यह है हक

    पिे-हलखे और कानून बनाने वाले लगातार लोकतंत्र

    की हत्या करने में लगे रॅए हैं। डॉ. अमे्बडकर को

    र्ायद इस बात का बरॅत पहले ही संदेह था हक

    अराजक र्खक्तयां जब कभी भी सत्ता में आयेंगी तब

    लोकतंत्र पर खतरा और गहरा होता जायेगा।

    इसहलए वे अपने संदेह को संहवधान सभा में अंहतम

    डर ाफ्ट प्रसु्तत करते रॅए इस प्रकार अहभव्यक्त करते

    हैं- ‚आज के हदन हम एक हवरोधाभासो ंके युग में

    प्रवेर् कर रहे हैं जहााँ राजनीहतक के्षत्र में हमने

    समानता, स्वतंत्रता व न्याय प्रदान हकया है; वही ं

    सामाहजक, सांसृ्कहतक व आहथतक के्षत्र में इन मूल्यो ं

    को स्थाहपत नही ं कर पाए हैं। अतः हजतना जल्दी

    इन मूल्यो ं को सभी के्षत्रो ं में स्थाहपत करने में हम

    सफल रॅए, उतनी जल्दी वास्तहवक लोकतंत्र

    स्थाहपत करने में सफल हो पाएंगे।‛

    यहां ‘हवरोधाभासो ं के युग में प्रवेर् करने’

    का क्ा अथत लगाया जाय ? मेरे हहसाब से यह

    लोकतंत्र के प्रहत जो उनके मन में संदेह उमा रहा

    था, वही कहा जा सकता है। आज के वततमान

    पररदृश्य को देखकर हम उनके संदेह को जायज

    ठहरा सकते है। और कह सकते है हक हम

    वास्तहवक लोकतंत्र स्थाहपत करने में असफल रहे।

    हालांहक इसका एक दूसरा पहलू भी है। यह हक

    ‚अब तक अपनाये गये सभी प्रकार के र्ासन

    पद्धहतयो ं में लोकतंत्र बेहतर है। लोकतंत्र की हजन

    लोगो ं ने भी आलोचना की है वे इसका हवकल्प दे

    पाने में सफल नही ंरॅए हैं। साथ ही एक बात और

    भी देखने में आयी है हक अहधकतर लोकताखिक

    र्ासन व्यवस्थाओ ंमें समस्या इस कारण उत्पन्न रॅई

    है हक वहां लोकतंत्र को ठीक तरह से लागू नही ं

    हकया जा सका‛ मतलब यह हक समस्या लोकतंत्र में

    नही ं लोकतंत्र के व्यवस्थापको ं में है। अतः

    अमे्बडकर के मन में जो संदेह था वह दरअसल

    लोकतंत्र के प्रहत नही ंबखि उसके व्यवस्थापको ंके

    प्रहत था। वततमान सरकार के आने के बाद उनके

    संदेह की प्रमाहणकता लगातार बढती ही जा रही है।

    अतीत को भुलाया नही ंजा सकता और ना

    ही दुहराया जा सकता है। इसहलए हमें वततमान में

    ही आने वाले अतीत को बेहतर बनाने का प्रयास

    करना चाहहए। जो हक होता भी रहा है। लेहकन

    आज का वततमान खतरनाक से भी खतरनाक है।

    खासकर नयी सरकार बनने के बाद लोकतंत्र की

    खस्थहत ‘तरवार की धार पे धावनो है’ जैसी हो गयी

    है। तलवार भी दो धारी है। एक तरफ की धार

    भूमंडलीकरण ने लगायी है तो दूसरी तरफ की हहन्दू

    राष्ट्र वाद ने। एक तरफ पंूजी के खखलााी कानून के

    साथ जब चाहें तब खखलवाा करने में लगे हैं तो

    दूसरी तरफ हरेया-प्रहतहरेया करके हहन्दू-

    मुसलमान। यहााँ गजब का हवरोधाभास है।

    बाजारीकरण के इस युग में हम जबहक उपभोक्ता

    मात्र हैं हफर कैसे संभव है हक हसफत हहन्दू और

    हसफत मुसलमान हो जाएाँ ?

    हपछले हदनो ं रॅई दो घटनाओ ं का हजरे

    करना मैं यहााँ जरुरी समझता रॆाँ। एक हररयाणा की

    लोकल टर ेन में बीी खाने के र्क पर भीा िारा की

    गयी एक युवक की हत्या और फेसबुक पोस्ट से

    पहिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना हजले के बदुररया

    और बाहसरहाट इलाके में रॅई साम्प्रदाहयक हहंसा।

    ये दोनो ंघटनायें अपने आप में यह साहबत करने के

    हलए पयातप्त हैं हक उन्माद हसर के उपर चि चुका

    है। यही उन्माद लोकतंत्र के हलए सबसे खतरनाक

    है। वततमान सरकार के समय-काल की बात की

    जाय तो भीा ही न्यायाधीस की कुसी सम्हाले रॅई

    है। भीा का न्यायाधीस की कुसी सम्हालना बुरा

    नही ं है बुरा यह है हक वह हकस बात के हलए

    न्यायाधीस बनी बैठी है ?

    यही भीा यहद रोजगार के हलए खाी

    होती, हर्क्षा के हलए खाी होती, स्वास्थ्य के हलए

    खाी होती, अपने लोकताखिक अहधकार और

    न्याय के हलए खाी होती तो कही ं से भी भीा का

    न्यायाधीस होना बुरा नही ंहोता। ऐसा लगता है वह

    हकसी भी प्रकार से इस तरह की समस्याओ ं का

    समाधान नही ंचाहती। इसके हलए कोई गैंग नही ंहै।

    गैंग है तो गाय के हलए, बीफ के हलए। आखखर क्ा

    कहा जाय ऐसे उन्मादी गैंगो ं के हलए, जो लगातार

    इंसाहनयत का गला घोटने पर उतारू हैं ? मुझे तो

    कुछ भी समाधान नजर नही ंआता।

    र्ायद इन्ही सब बातो ं को महराज का

    चेला बेहतर तरीके से समझ चुका था। इसीहलए वह

    महराज को आज के यथाथत का दर्तन करा रहा था।

    वह यह भी समझ चुका था हक आज के समय में

    यहद हजन्दा रहना है तो ‘दम साधकर सााँस लेना

    और सााँस छोाना होगा। इस तरह अभी तक मैं भी

    इस नतीजे पर परॅाँच पाया रॆाँ की महाराज के चेले

    की बातो ंमें आज की सच्चाई छुपी रॅई है।

    हफलहाल इसपर सहमत होने की जरुरत

    है, आगे का पता नही.ं.. !

  • (3)

    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

    इस अंक में-

    हमारी योजना थी हक यह अंक ‘दहक्षण

    भारत में हहंदी भाषा और हहंदी साहहत्य का

    समकालीन पररदृश्य’ हवषय पर हवरे्षांक के रूप

    में हनकाला जाय। इसके हलए पहत्रका की तरफ से

    सूचना भी जारी रॅई थी। हमने रचना-आमंत्रण के

    अंहतम समय तक इिजार भी हकया। लेहकन

    रचनाकारो ंऔर लेखको ंका इस हवषय पर तहनक

    भी उत्साह देखने को नही ं हमला। और हमें पयातप्त

    रचनाएाँ नही ं हमल पायी।ं नतीजतन हवरे्षांक की

    योजना को कुछ समय के हलए टाल टाल देना पाा।

    मैं नही ं जानता हक इसके हलए मुझे क्ा कहना

    चाहहए। लेहकन यह मेरे साहहखत्यक जीवन के दुखद

    क्षणो ंमें से एक है।

    अब जबहक यह अंक आपके सामने है।

    हजसके हलए ज्यादा कुछ कहने की जरुरत नही,ं

    क्ोहंक यह हकसी हवरे्ष हवषय-वसु्त पर केखन्द्रत

    अंक नही ं है। हफर भी यह अंक अपनी तरह की

    एक अलग ही हवरे्षता हलए रॅए है।

    सावन का महीना चल रहा है। चारो तरफ

    हररयाली छाई रॅई है और हम सभी सावनी बंूदो ं

    लुफ्त उठाने में व्यस्त हैं; तो कैसे संभव है भला हक

    पहत्रका में सावन की फुहारें न हो।ं देवेन्द्र आयत

    अपने लहलत हनबंध ‘सावन का हबग बाजार’ के

    माध्यम से सावनी झलेू पर पेंग मारने में कही ंसे भी

    पीछे नही ं हटे हैं। डॉ. रामचन्द्र पाणे्डय ‘भाषा-

    हर्क्षण और सांसृ्कहतक अखिता की उपादेयता’ पर

    गहन हवशे्लषण करते रॅए कहते है,’भाषा महज

    मनुष्य के व्यखक्तत्व की वाहहका नही ं होती, बखि

    वह सं्वय मनुष्य को उसके समू्पणत पररवेर् से सन्नद्ध

    करती है।‘ डॉ. मीनाक्षी जयप्रकार् हसंह के लेख

    ‘पे्रमचंद-साहहत् य में मानवेत् तर चेतना’ में मानवेत्तर

    चेतना से मानव की चेतना का तुलनात्मक अध्ययन

    करने का प्रयास हकया गया है।

    इसके आलावा और भी कई सारे गंभीर

    और र्ोध-परक लेख पहत्रका के इस अंक में

    र्ाहमल हैं। डॉ. राजेंि जोर्ी का ‘परम्पराओ ं में

    पररवततन की प्रहरेया, भावना मसीवाल का

    ‘सूरजमुखी अाँधेरे के’ उपन्यास का समाज

    मनोवैज्ञाहनक अध्ययन’, डॉ. धीरेन्द्र हसंह का

    ‘समकालीनता के हनधातरक आधार और समकालीन

    कहवता’ , डॉ. सुभाष चन्द्र पाणे्डय का ‘हत्रलोचन के

    काव्य में धाहमतक हचंतन का स्वरुप’, डॉ. भूहपंदर

    कौर का मराठी रामावतार और पंजाबी रामायण का

    तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. से्नहलता का ‘समकालीन

    हहंदी उपन्यासो ं में स्त्री-आरेोर् और मानवीय

    मूल्य’, भगवत प्रसाद पटेल का ‘वैहश्वक पररदृश्य में

    कला हफल्ो ं के आन्दोलन का भारत में प्रभाव’,

    आनंद दास का ‘भारतीय समाज में हहंदी हसनेमा का

    प्रभाव’ और दीपा का ‘दहलत ददत का दस्तावेज :

    चमार की चाय’ जैसे लेख ‘साहहत्य, संसृ्कहत एवं

    हसनेमा की वैचाररकता’ में र्ाहमल होकर

    समकालीन समय की चुनौहतयो ंको स्वीकार करके

    समाधान तलार्ने का प्रयास करते हैं।

    कहवता सं्तभ में सोलह रचनाकारो ं की

    कहवताये ाँ र्ाहमल की गयी है। इन रचनाकरो ं में

    अहधकतर युवा है अतः इनकी रचनाओ ं में एक

    तरफ अलग तरह की छटपटाहट और बेचैनी है तो

    दूसरी तरफ आरेोर् भी पूरी तीव्रता हलए रॅए है।

    कहानी स्तम्भ में गोपाल हनदोष की ‘पागलपन’,

    अजय कुमार चौधरी की ‘और सााँसें टूट गईं...’,

    र्हादत की ‘तुमसे’ और गोवधतन पटैररया की

    कहानी ‘सू्कल में नाटक चन्द्रहास’ के आलावा दो

    लघु कथाएं इस अंक की वैचाररकी को मजबूती

    प्रदान करती रॅई नजर आती हैं।

    बाकी आगे की बातें आप सभी सुधी

    पाठको ंकी तरफ से हो,ं इसी उम्मीद में पहत्रका का

    यह अंक आपके सामने प्रसु्तत है।

    *****

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    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

    देवेन्द्र आयश

    ए-127, आवास ववकास कालोनी

    र्ाहपुर, गोरखपुर-273006

    [email protected]

    चीजें हजतनी तेजी से बदल रही हैं उससे कही ंतेज बदल रहा है

    मौसम। मौसम की इस बज़्म में र्मा आज सावन के सामने है।

    सो उसी की बात करें । कौन तय कर पायेगा हक मौहलक सावन

    अभी आने आने को है या जून में ही काहबऽ हो चुका है। मौसम

    भी नगर हनगम की भूहम हो गया है, जो दबंग है वह कखिया ले।

    पूरे तथाकहथत ‘आयातवतत’ में आसाि जेठ से शे्रष्ठ रहा है। मई जून

    की तपन सावनी फुहारो ंसे सराबोर रही। र्हरी खुर् हक गमी से

    थोाी हनजात हमली वरना इस पावर-कट समय में जीना मुखिल

    था। खेहतहर खुर् हक बेहन डालने की साइत आ गयी। अगर

    सच यही है तो जो आ रहा है घाघ के अनुसार और पत्रा के

    हलहाज से, वह क्ा है? गहणतीय ज्योहतष हक फहलत ज्योहतष हक

    आधुहनक मौसम हवज्ञान। सबका अज्ञान सामने ला हदया इस

    आभासी सावन ने। कल और आज का अिर हसफत यह है हक

    कल तक हम प्रकृहत और मौसम के अनुसार हर हाल में ढल

    जाते थे। गोया ढलने को मजबूर थे। परिु आज हमारी वैज्ञाहनक

    प्रगहत और तकनीकी हवकास ने हमें प्रकृहत-मजबूर होने के

    अहभर्ाप से मुक्त कर हदया है। अब हम प्रकृहत और मौसम को

    हर तरह, हर हाल में दुहने को स्वति और सक्षम हैं। हमारी

    सोच मौसमाहश्रत नही ं रह गयी है। मन भले अभी भी

    मौसमानुकूल चुलबुलाता हो।

    यूाँ भी हहन्दुस्तान में अगर मौसम कही ंबचा है तो हसफत

    हफखल्स्तान में। हहन्दी साहहत्य में तो मौसम-प्रगािता

    नासे्टखिया समझी जाती है। लहलत हनबन्ो ंमें थोाा मौसमाना-

    आहर्काना हो भी जाता था परिु अब वह हवद्या हाहर्ये पर भी

    नही ंरही। बाकी व्यास से लेकर गाहलब सम्मान तक सबने मौसम

    को असम्माननीय ही समझ रखा है। जो मौसम से बात करे,

    मौसम से बात पैदा करे, मौसम से आत्मीय हो वह हफल्ी या

    बरॅत हलहाज से कहो तो लोकवादी। हलहाजा हबरादरी बाहर।

    मगर क्ा वाकई ऐसा है? क्ा फाग हमारे भीतर कोई राग-

    संचार नही ं करता? क्ा सावन के आने से हमारे भीतर कोई

    धानी चूनर नही ंलहराती? धरती बेर्क भीगंती हो बाररर् से और

    तन भी, पर मन तो भीगंता है हसफत फुहारो ंसे। ‘सत्तन’ कहते हैं-

    माइया में मोर मन भीहंज जाला।’ हवद्याहनवास जी के राम का

    मुकुट भीगंता है पानी से पर मन तो चूनर धानी से। हफर ये

    फुहारें सावन में भी क्ो ं आती हैं? अब तो रेनीसीजन की

    अवधारणा बारहमासी हो गयी है परिु फुहारी सीजन अभी भी

    माहसक ही है।

    सावन का वबग बाज़ार

    सावहत्य एवं संसृ्कवत

    mailto:[email protected]#m

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    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

    अब न जाने कैसे और कहााँ से सावन का मायके से

    गठजोा हो गया। सावन आने वाला है। खस्त्रयो ं में

    मायका-मोह जगने लगा है। कोई भइया को बुला

    रही है, कोई सहेली से चुलबुला रही है, कोई बाबुल

    को सने्दर् पठा रही है। सावन में मायके जाना है।

    कारण र्ायद यह भी हो हक जो सावन-मस्ती पूरी

    छूट के साथ मायके में फूट सकती है वह ससुराल

    के हकंहचत आहभजात्य और ररजवत माहौल में नही ं

    फूट सकती। परिु क्ो?ं इसी आयातयतत में एक ऋतु

    फागुन भी है जहााँ सारी धीगंामस्ती ससुराल में ही

    वाहजब है। चाहे लरॅरा देवर का सारी-अंहगया

    हभगोना हो या बाबा का देवर लगना। सर र र की

    फागुनी मस्ती और सावन की कजरी। एक ससुराल

    में ही र्ोभती है तो दूसरी मायके में ही। क्ो?ं यह

    लोक-पाहठयो ंके हलए अध्ययन का हवषय हो सकता

    है। र्ायद ‘माई’ के

    सम्पादक का ध्यान

    इस ओर जाए।

    जो हो

    सावन आ गया।

    फुहारें पा रही हैं।

    दुआर के नीम पर

    झलूा पाा रॅआ है।

    बाग में मायके आई

    सुहाहगनो ं के पूवत

    पे्रमी आम तोाने के

    बहाने ‘झटहा’ चला

    रहे हैं। खखलखखला

    रहे हैं। मौके बे मौके स्पर्त-प्रहतबन् भी नही ं है।

    कुछ सद्यः प्राथी ‘पी कहााँ - पी कहााँ’ की रटि में

    व्यस्त हैं। कुछ नई नई पखखयाई कोयलें भी कूकने

    से बाज नही ंआ रही हैं। कही ंअखााे में बाहो ंकी

    मछहलयााँ छपाक-छपाक कर रही हैं। कही ं गुहाया

    का शंृ्रगार हो रहा है। कही ंगुहाया पीटी जा रही है।

    कही ंअनरसे छन रहे हैं। कही ंनाग से बीन की धुन

    पर काटने का गुर सीखा जा रहा है। लोक में सााँप

    को दूध हपलाने का मुहावरा तो है परिु नाग को

    दूध हपलाने का मुहावरा नही ंहै। गोया नाग सााँप न

    हो। होता तो नाग पंचमी ही क्ो?ं धाहमन पंचमी क्ो ं

    नही?ं यह प्रश्न स्त्रीवाहदयो ंको उठाना चाहहए। बात

    उटे्ठगी तो हफर दूर तलक जायेगी। हमने तो अपनी

    धरती ही रे्षनाग के फन पर हटका रक्खी है।

    एक सावनी अवधारणा यह भी है हक हक

    श्रावणमास में ही चैरासी लाख योहनयो ं के गुलाम

    प्राणी पृथ्वी पर मुक्त होने की अहभलाषा में प्रकट

    होते हैं। नाना प्रकार के जीव-जिु, कीट-पतंगे,

    प्रजननर्ील, अप्रजननर्ील, घातक और सहायक

    भी, इसी ऋतु में अवतररत होते हैं और राहत्रपूजा

    (नवराहत्र) के साथ योहनमुक्त हो जाते हैं अथवा पुनः

    सुप्तावस्था में चले जाते हैं।

    सावन हजतना मस्ती का महीना है, उतना

    ही उाान का। पतंगबाजी इसे पुष्ट् करती है। पृथ्वी

    पर रहते रॅए आकार्चारी होने की आकांक्षा। मगर

    डोर धरती से बाँधी रहे। डोर कटी नही ं हक हो गये

    कनकउवा। सावन हजतनी उाान भरता है उतने ही

    हहचकोले देता है। ‘‘हनहबया के डार मइया झलेू ली

    झुलनवा हक झरूी झरूी ना!’’ पेंग बिाने-लााने का

    त्यौहार है सावन। हऽन्दगी झलेू की तरह है। कभी

    ऊपर कभी नीचे। गहतमान। रूकी नही।ं डोलती।

    सुर और स्वर से

    साँवरती। सोहचए, न

    मालूम हकतने

    करोा देवताओ ं में

    से एक कनै्हया ही

    क्ो ं झलेू में झुलाये

    जाते हैं। सावन,

    झलूा और झलेूलाल।

    इस हत्रपदी की जाें

    हहन्दुस्तानी मन में

    हकतनी गहरी हैं।

    हकतनी गहरी है

    गोद में झुलाने की

    लालसा।

    मगर झलेू पाे तो कहााँ पाें। नीम तो पेटेन्ट

    हो चुकी। याद कररये रेल कालोहनयो ंके बाे बीघा-

    बंगले हजनमें लोहे के झलेू अहनवायत रूप से होते हैं।

    बंगलो ं के बाहर कालोनी और फै्लट सभ्यता में तो

    पेा अब रहे नही ं। हैं भी तो सजावटी, सो झलेू पाें

    कहााँ? डाल भी तो मजबूत हो हक उस पर वजन

    डाल के झलू सकें , वरना भरभराकर भहरा गये तो ?

    बचपन में अम्मा धरन से रस्सी बााँध कर और उस

    पर कोई तहकया या पीठा रखकर ‘झलुआ’ का

    र्ौक पूरा कर देती थी।ं हम अपने पखिक सू्कली

    बच्चो ंका र्ौक कैसे पूरा करें ? अव्वल तो बच्चो ंमें

    यह झलूा-र्ौक रहा ही नही,ं एनीमेर्न हफल्ो ं के

    आगे। ‘झलूा’ कही ंबचा है तो हसीत मेलो ंमें। गााँव के

    झलूो ं का पररषृ्कत र्हरी संस्करण, पेंगहवहीन

    झलूा। पााँव की ताकत से नही,ं हबजली से चलता है।

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    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

    भारतीय मानस में मस्ती कही ंभी भखक्त से

    जुदा नही ंहदखती। ीकत हसफत यह आया है हक अब

    भखक्त में मस्ती का तत्व ज्यादा तलार्नीय हो गया

    है। खैऄ र, तो सवातहधक व्रत, त्यौहार इसी सावन में ही

    पाते हैं। आखखर क्ो?ं सावन कब सावन होता है

    और कब श्रावण, पता ही नही ं चलता। कौन

    हनमखित करता है कााँवररयो ंको। नंगे पााँव, पााँवो ंमें

    छाले हलए, कांधे पर कााँवर और होठंो पर बोल-

    बम। इनकी तादाद बिती जा रही है। मुिा स्फीहत

    की तरह, बेरोजगारी की तरह। इन्हें हनमखित करने

    वाला अप्रत्यक्ष भले हो, हनयखित करने वाला

    एकदम प्रत्यक्ष है। करोाो ंका कााँवर व्यापार र्हर-

    दर-र्हर पनपता जा रहा है और बिती जा रही हैं

    इनकी सांगठहनक दुव्यतवस्थाएं।

    सावन के सोमवार का व्रत तो खस्त्रयो ं के

    हलए मानो नैहतकता का प्रश्न है। हर्व अराधना।

    कााँवरो ं की हबरेी, मॉडल के हहसाब से कीमत।

    कााँवरी हवहर्ष्ट्

    कपाो-ंजांहघया

    और अधकट्टी

    कमीज की हबरेी।

    कनफोावा भजन-

    र्ोर की हबरेी।

    कैसेटो ं की हबरेी।

    हर्वहलंग की पूजा।

    हलंग पूजने वाला

    मन हकतना

    आधुहनक है।

    इसकी कलई खुल

    जायेगी यहद आप

    योहन पूजा की बात

    छेा दें। हालााँहक पूजा योहन-हववर में स्थाहपत

    हर्वहलंग की ही होती है, योहन बहहषृ्कत हलंग की

    नही।ं यह योहन है हकसकी? यहााँ तक आते आते

    प्रश्न अश्लील हो जाता है और कमतकाण्डी मन

    ‘स्वयंसेवक’।

    रक्षाबन्न, हर्वराहत्र, कृष्ण जन्माष्ट्मी सब

    तो सावन के आसे-पास पाते हैं। हर पवत अपनी

    ऽमीनी ऽरूरतो ंऔर मौसमी बदलावो ं से जुाा है।

    सावन भी। रोपनी के गीत इसी मास में सुनने को

    हमलते हैं। धान, धन्नो,ं धनेसर, धहनया, इन नामो ंकी

    वु्यत्पहत्त खोजें तो कहााँ परॅाँचेंगे? है कोई मौसम जो

    सावन की हररयाली का मुकाबला कर सके? इसी

    हररयाली की आा में कुर्-कााँटे भी पैदा हो जाते हैं,

    हपछवााे, गहलयो ं में, खेतो ं में। इन्हें पहचानती हैं

    खस्त्रयााँ। बीन-बीन के भाई दूज के अवसर पर नष्ट्

    कर देती है। कााँटे हकतने प्रकार के हो सकते हैं यह

    जानने के हलए भी सावन को जानना ऽरूरी है।

    धतूरा, भटकटैया, हचाहचडा........ हम तो भाई

    र्ायरी पिके गुल के साथ ऻार तक ही सीहमत रह

    गये। यह गुल क्ा है? गुलाब। र्हरी लानो,ं टैरसो ं

    पर गमहलयाये गुलाब के अलावा कााँटे कही ं हदखते

    ही नही,ं कीलें जरूरी हदखाई पा जाती हैं, टापरो ंमें

    घुसी रॅई। कही-ंकही ं कमतकाण्डी घरो ं में र्नीचरी

    पूजा के हलए लगाये र्ामी के पौधे। कााँटो ं में भी

    पहत्तयााँ हनकलना देखना हो तो र्ामी के पौधे को

    देखखये। और मेंहदी? हबना मेंहदी रचाये तो सावन-

    पुराण पूरा ही नही ंहोता। हररयाली के भीतर हछपी

    लाली। वे हाथ, हाथ नही ंठाकुर, हजनमें कभी मेंहदी

    न रचाई गयी हो। एक से एक महीन जालीदार

    काम। ीकत मेंहदी के दाम। हचकन-कला का

    मेंहदी-कला से कुछ न कुछ ररश्ता जरूर रहा

    होगा। इतना कलात्मक मेंहदी-धैयत आपको मनुष्य

    की मादा नस्ल के अलावा कही ं न हमलेगा। गोरी

    मेंहदी रचाये-रचाये

    सो गयी है। मजाल

    की हाथो ं में कोई

    जुखम्बर् हो और

    इधर-उधर मेंहदी

    पोताये। सर से पांव

    तक मेंहदी सेवन

    की परम्परा रही है।

    हहन्दुस्तान में जो

    अब गोदरेज घराने

    की डाई हो चुकी

    है। आपके हलए

    मेंहदी डाई है।

    उनके हलए दाई।

    अरबो ंका व्यापार।

    ‘छाप हतलक सब छीन्ही रे मोसे नैना

    हमलाइके।’ यह छाप आपको र्हरो ं के हाटनुमा

    बाऽारो ं में हदखाई पा जायेगा। मेंहदी रचाने का

    समय और धैयत न हो तो हाथो ंपर छाप लगवा लो।

    टैटू की उत्पहत्त र्ायद इसी से पे्रररत रॅई हो।

    सावन हवरु्द्ध हहन्दुस्तानी त्यौहार है। जैसे

    ‘मड मेखस्टवल’ योरोपीय। वहााँ इस हदन पिे हलखे

    कीचंा पोतते हैं। हमारे यहााँ यही काम महडया

    मारती भैंसे करती हैं। सावन को देखखये। हर तरफ

    हकहचर-हकहचर लेहकन कही ं कीचंा नही।ं जो है

    सब भीगा-भीगा। नम-नम। मस्ती, पूजा-पाठ,

    खेलकूद, और इसी के साथ बोली-बानी भाषा।

    हहन्दी हदवस 14 हसतम्बर को ही मनाया जाना क्ा

    हसफत संयोग मात्र है या कही ं हहन्दुस्तानी अवचेतन

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    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

    में पाी कोई भाहषक-झांई। यही वह धरती है जहााँ

    यौवन को सावन और र्ब्द को ब्रह्म कहा गया है।

    पाठको,ं मैं हपछले हफ़े्त भर से परेर्ान रॆाँ।

    मेरी हबहटया ने मुझसे कहा है हक पापा एक पुहाया

    सावन ला दो। पुहाया तो मेरी पच्चास वषीय कुण्ठा

    िारा हकया गया अनुवाद है। दरअसल उसने कहा

    था हक एक पाउच सावन ला दो। अब मैं टहल आया

    अपने र्हर के सभी आलीर्ान, सम्भ्राि बाऽारो ं

    में। साहबगंज से लेकर पाणे्डहाता तक। माटत में

    और अभी-अभी उद्घाहटत इकलौते माल में भी।

    कोई साला सावन बेचता ही नही।ं पूछा तो कहा,

    साहब हडमाण्ड नही ं है। फागुन बेचने वाले हमले,

    गणेर्ोत्सव बेचने वाले भी हमले। कही-ंकही ंछठ भी

    उपलब्ध था परिु सावन बेचने वाला कोई नही।ं

    एक जामुन बेचने वाला भी हदखा। उसने कहा

    साहब जामुन ले जाओ। हबहटया को कहना यही

    सावन है। आखखर सावन के अलावा जामुन कब

    हमलता है। मेरा संस्कारी मन भीतर ही भीतर

    गदगद भी रॅआ हक चलो इस बऽारनुमा दुहनया में

    कुछ तो है जो बाऽारू नही।ं हबकाऊ नही।ं वरना

    भाई ने तो दो टहकया की नौकरी और लाखो ं का

    सावन रोकाे में ही हलख हदया था। मगर सावन

    हबकाऊ नही।ं र्ायद इसीहलए हक कमाऊ नही।ं

    घर दुआर की चीज है। फ्रोजन सखियााँ हमलेंगी,

    फ्रीज में पैक रखी सावनी घटायें नही ं हमलेंगी। इसे

    कंरेीट के जंगलो ं में नही ं पाया जा सकता। बाग-

    बगीचो,ं गााँवो-ंकस्ो ंमें ही महसूस हकया जा सकता

    है। मौसम देखने की नही ं महसूसने की चीज है।

    ए.सी. में बैठकर इण्टरनेट पर सावन का मजा और

    साक पर आके पानी लदी साको ंऔर बजबजाती

    नाहलयो ंकी सजा.... । जै राम जी की सावन!

    मगर सावन तो हफर भी आयेगा। हम पर

    नही ं तो हकसी और पर। सावन न होता तो

    कालीदास कहााँ होते। सावन यानी मेघ और धरती

    के आहलंगन का पवत। हम अगर इसके साक्षी बनते

    हैं तो वाह वाह नही ंतो रे्र सुहनये-

    ‘यह कबीर की उल्टी बानी/सावन

    आयो रेवगस्तानी।’ वचत्र-गूगल से साभार

    *****

    लघु-कथा

    मुवतशकार का तप

    वकसी व्यखक्त ने एक मूहततकार से पूछा हक- ‚क्ा बना रहे हो?‛

    मूहततकार बोला-‚इधर कनै्हया, ये गणेर्, हर्व और ये हनुमानजी और ये दुगात मईया और लक्ष्मी मैया।‚

    हफर वह व्यखक्त अट्टाहस भरे र्ब्दो ंमें बोला-‚हजस परमात्मा ने समस्त ब्रह्माण्ड का हनमातण हकया। तुम उसे

    बना रहे हो? तुम उसे कैसे बना सकते हो?... तुम्हारी क्ा औकात?‛

    इस पर वह मूहततकार बोला-‚सज्जन मैं मूहतत बनाकर न अपनी औकात हदखा रहा रॆाँ, न ईश्वर की औकात नाप

    रहा रॆाँ। मैं तो बस मेरे नयनो ंमें व ह्रदय में बसे ईश्वर के रूप को एक मूतत रूप देने की कोहर्र् कर रहा रॆाँ।

    वह हकतना भव्य, संुदर व मनमोहक हैं। हफर भी पता नही ंकू्ाँ उसके उस रूप को मैं रॆबरॆ उतार नही ंपा

    रहा। या तो मेरी आस्था में कमी है। या हफर मेरी कला में। हजससे हमेर्ा ही उसके रूप सौन्दयतता व भव्यता

    में कोई न कोई कमी रह जाती है। इसहलए मैं हनरंतर प्रयासरत रह कर कई और मूहततयो ंका हनमातण करता

    रहता रॆाँ। हक र्ायद मेरी मूहततयो ंकी छवी हकसी और के रॄदय में बसे ईश्वर के रूप से मेल खा जाये।‚

    पारुल र्माश

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    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

    डॉ. रामचन्द्र पाणे्डय

    ववभागाध्यक्ष, वहन्दी ववभाग

    ईश्वर सरन वडग्री कालेज

    इलाहाबाद, यू. पी.

    [email protected]

    भाषा के िारा ही मनुष्य अपने सामाजीकरण की पहली तमीऽ हवकहसत करता है और सच तो यह भी है हक भाषा के आभाव में

    सामाजीकरण की पररकल्पना भी सवतथा असंभव ही है। समूची

    भाहषक अहभव्यखक्त और अनुभूहत को मनुष्य समाज से ही सीखता

    है, अपनी संवेदना को जागृत और हवकहसत करके समाजहहत में

    समहपतत भी कर देता है। मनुष्य की अनुभूहत और अहभव्यखक्त के

    स्वरूप का पररष्कार, पररमाजतन तथा संवेदना का जागरण भाषा के

    िारा ही संभव होता है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है हक भाषा

    कोई चंद लम्हो ंमें ईजाद की रॅई वसु्त नही ंबखि हऽारो ंवषों के

    पररष्कारो ं तथा सतत् अनुसंधानो ं से हवकहसत है। भाषा अपनी

    हवकास की सभी प्रहरेयाओ ं में उत्तरोत्तर अहधक संवेदनात्मक ही

    होती गई है। हऽारो ंवषों के अनुसंधानो ं से हवकहसत आज हमारी

    भाषा पर एक गंभीर खतरा माँडरा रहा है क्ोहंक हवश्व की तमाम

    बाऽारवादी र्खक्तयााँ तथा खतरनाक मंसूबो ंवाली पूाँजीवादी ताकतें

    भाषा की संवेदनात्मक होती संभावनाओ ं को लगातार छीनती जा

    रही है। भाषा संवेदना और संसृ्कहत पर गहराते रॅए इस संकट से

    सचेत करते रॅए डॉ. राजेन्द्र कुमार ‘‘र्ब्द घाी में समय’’, नामक

    पुस्तक में हलखते हैं - ‘‘भाषा वह उपकरण है हजसके अभाव में

    मनुष्य के सामाहजकीकरण की कल्पना ही नही ंकी जा सकती थी।

    भाषा केवल अहभव्यखक्त का ही माध्यम नही ंहोती, अनुभव का भी

    माध्यम होती है। भाषा को हनयंहत्रत करने वाली वगत-र्खक्तयााँ

    इसीहलए समाज की भाषा को भी अपने वगत हहतो ं के अनुरूप

    अनुकूहलत करने की कोहर्र् करती हैं। यह बेवजह नही ं है हक

    तमाम संचार माध्यमो ंके जररये हहन्दी भाषा का जो पद हवन्यास था

    ‘हडक्शन’ आज प्रचहलत हकया जा रहा हैं, वह यह तो महज

    सूचनापरक है या हवज्ञान परक। संवेदनात्मक होने की संभावनाएं

    लगातार उससे छीनी जा रही है। व्यवस्था को पूरा बोध है, यह कहें

    वह चैकन्नी है हक समाज के अनुभव को यहद अपने पक्ष में ढालना

    है तो पहले उसकी भाषा को उपभोक्तावादी पदावली में ढालना

    जरूरी है।1

    इस प्रकार ये ताकतें हजस हहन्दी पे्रम का हदखावा कर रही

    हैं वह इनकी मजबूरी है, दरअसल इनका वास्तहवक मकसद

    समाज को उपभोक्ता के रूप में बहला फुसलाकर बाजार तंत्र की

    जरूरतो ंके अनुरूप ढालना है, इनका अहधकाहधक र्ोषण करना

    है और इसी का पररणाम है हक-‘‘देर् का अहधकांर् सरकारी

    कामकाज भले ही हवदेर्ी भाषा में होता रहे, लेहकन मीहडया से

    प्रसाररत अहधकांर् हवज्ञापन सामग्री हहन्दी भाषा में ही क्ो ं होती

    है?-यह कोई रहस्य की बात नही ंहै और न ही यह हहन्दी पे्रम है।

    समाज को उपभोक्ता के रूप में लुभाना आज के बाऽारतंत्र की

    जरूरत है।’’2

    और इस बाऽार-तंत्र से भाषा की ऽरूरतो ं के अनुरूप

    तोा-मरोाकर हवकृत करना भी रु्रू कर हदया है। उसकी ये

    नापाक कोहर्र्ें भाषा से उसकी संवेदनात्मक र्खक्त को अलग कर

    भाषा-वर्क्षण और सांसृ्कवतक अस्मिता की उपादेयता

    mailto:[email protected]

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    ISSN 2455-5169 पररवर्तन : साहित्य, संस्कृहर् एव ंहसनेमा की वचैाररकी

    वर्त 2 अकं 7 जुलाई –हसर्म्बर 201 7 www.parivartanpatrika.in

    हदया है, उसकी रचनात्मक र्खक्त को नष्ट् कर उसे

    मात्र पदाथतवाची बना हदया है और इस बाऽार-तंत्र

    में समाज के बुखद्धजीवी वगत को भी रेीतदास बना

    हलया है जो बाे-बाे व्याख्यानो ं में उच्च स्वरो ं में

    उद्घोषणा करते हैं हक ‘‘हहन्दी के हवकास के हलए

    यह ऽरूरी है हक वह अपने आप को बाऽार के

    अनुरूप ढाले।’’ ठीक उसके हवपरीत हमारा मानना

    है हक बाऽारतंत्र की हहतकामना में लगे और हबके

    रॅए बाे-बाे भाषा र्ास्त्री थोाा सब्र रखें क्ोहंक

    आने वाले समय में बाऽार तंत्र ही मजबूर होगा

    अपने को भाषा के अनुरूप ढालने के हलए। बदलने

    की मजबूरी भाषा की नही ंबखि बाऽार की होगी।

    लेहकन हजस गहत से भाषा को खखण्डत करने,

    हवकृत करने की साहजर् चल रही है उसे देखकर

    लोगो ंको यह हवश्वास हदलाना काफी कहठन है हक-

    ‘‘बाऽार की र्खक्तयााँ एक हदन भाषा िारा हनयंहत्रत

    होगंी।’’ हमारे इस हवश्वास को लोग हनिय ही सपना

    मानेंगे लेहकन यह भी सच है भावी और अवशं्यभावी

    यथाथत को लोग सपना

    मानने लगे तब वह क्षण

    हमारी साधना का होता

    है, हमारे समपतण का

    होता है। पेट्स के र्ब्दो ं

    में कहें तो ‘‘सपनो ंमें ही

    हमारी हऽमे्मदाररयााँ

    रु्रू होती हैं।’’ 3

    इसमें कोई

    संदेह नही ं हक व्यखक्त

    और समाज के बीच के

    अदृश्य होते सेतु की खोज एक रचनाकार ही कर

    सकता है। हजसने जनभावना की चेतना की हनहमतत

    के वास्तहवक आधार-‘भाषा’ का हनरंतर अनुसंधान

    हकया हो। साहहत्यकार ही उन सब र्खक्तयो,ं

    सत्ताओ ंऔर हवचारधाराओ ंका हवरोध कर सकता

    है जो सहदयो ंसे संरहक्षत हमारी भाषा, हमारे हवचार-

    प्रवाह, हमारी सांसृ्कहतक अखिता को कंुहठत और

    कुलहपत करने का हनरंतर षडं्यत्र कर रही है।

    रचनाकार भाषा के िारा ही तो संसार की सारी

    मानव हवरोधी और षायंत्रकारी र्खक्तयो ं की

    आरेमकता का सामना करता है। रचनाकर को

    अपने समाज से अहजतत जो भाषा प्राप्त होती है-‘‘वह

    एक ऐसी सक्षम और सर्क्त भाषा है हजसकी मदद

    से वह अपनी पूरी सम्पदा को सतह की रोर्नी में

    लाता है जो र्ताखब्दयो ं से हमारी चेतना की परतो ं

    तले दबी पाी थी, एक दुधारी भाषा जो अपने

    लेखको ं से असीम साहस की मााँग करती है और

    अबाध पे्रम की, पे्रम हलखे रॅए र्ब्द के प्रहत, ताहक

    उनके िारा जीवन का हसीन और हसरत भरा सत्य

    बाहर आ सके। साहस-हजसके िारा वह अपने

    समय की दानवी र्खक्तयो ंका सामना कर सके जो

    आधुहनकता �